Amazingly beautiful and heart-touching poems by the Late Shri Ayodhya Singh Upadhyaya “Harioudh” on the greatness of the beloved Hindi language.

“Harioudh” on the greatness of the beloved Hindi language

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध को खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्यकार माना जाता हैI हरिऔध जी का सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण ग्रंथ है – ‘प्रियप्रवास’ जिसे मंगला प्रसाद पुरस्कार प्राप्त हो चुका हैI हरिऔध, हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति रह चुके हैं और उन्हें विद्या-वाचस्पति पुरस्कार प्रधान किया जा चुका है । हरिऔध ने भगवान राम और कृष्ण के जीवन पर भी बड़ी ही मनोहारी कविताएं की है।

अयोध्या प्रसाद का जन्म उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ के निजामाबाद में हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित भोलनाथ उपाध्याय था और उनकी मां का नाम रुक्मिणी देवी था। उन्होंने सिख धर्म को अपना लिया और अपना नाम भोला सिंह में बदल दिया। उनके पूर्वजों को मुगलकालीन दरबारों में बड़ा ही सम्मान प्राप्त था । उनकी प्रारंभिक शिक्षा निजामाबाद और आजमगढ़ में हुई थी।

हरिऔध का जीवन काल 18565 से 1947 तक था, हरिऔध द्वारा हिंदी साहित्य में किए गए अविस्मरणीय योगदान के लिए उनको शत-शत नमन!

कितना प्रासंगिक है, आज हिंदी दिवस पर अयोध्या सिंह उपाध्याय “ हरिऔध” का यह हिंदी भाषा पर काव्य-पाठ, ऐसा जान पड़ता है कि यह काव्य रचना अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ने तब लिखी थी जब भारत की हिंदी भाषा जनसंख्या तकरीबन 21 करोड़ रही होगी I

पड़ने लगती है पियूष की शिर पर धारा।
हो जाता है रुचिर ज्योति मय लोचन-तारा।
बर बिनोद की लहर हृदय में है लहराती।
कुछ बिजली सी दौड़ सब नसों में है जाती।
आते ही मुख पर अति सुखद जिसका पावन नामही।
इक्कीस कोटि-जन-पूजिता हिन्दी भाषा है वही।I

जिसने जग में जन्म दिया औ पोसा, पाला।
जिसने यक यक लहू बूँद में जीवन डाला।
उस माता के शुचि मुख से जो भाषा सीखी।
उसके उर से लग जिसकी मधुराई चीखी।
जिसके तुतला कर कथन से सुधाधार घर में बही।
क्या उस भाषा का मोह कुछ हम लोगों को है नहीं।I

दो सूबों के भिन्न भिन्न बोली वाले जन।
जब करते हैं खिन्न बने, मुख भर अवलोकन।
जो भाषा उस समय काम उनके है आती।
जो समस्त भारत भू में है समझी जाती।
उस अति सरला उपयोगिनी हिन्दी भाषा के लिए।
हम में कितने हैं जिन्होंने तन मन धान अर्पण किए।I

गुरु गोरख ने योग साधाकर जिसे जगाया।
औ कबीर ने जिसमें अनहद नाद सुनाया।
प्रेम रंग में रँगी भक्ति के रस में सानी।
जिस में है श्रीगुरु नानक की पावन बानी।
हैं जिस भाषा से ज्ञान मय आदि ग्रंथसाहब भरे।
क्या उचित नहीं है जो उसे निज सर आँखों पर धारे।I

करामात जिसमें है चंद-कला दिखलाती।
जिसमें है मैथिल-कोकिल-काकली सुनाती।
सूरदास ने जिसे सुधामय कर सरसाया।
तुलसी ने जिसमें सुर-पादप फलद लगाया।
जिसमें जग पावन पूत तम रामचरित मानस बना।
क्या परम प्रेम से चाहिए उसे न प्रति दिन पूजना।I

बहुत बड़ा, अति दिव्य, अलौकिक, परम मनोहर।
दशम ग्रंथ साहब समान बर ग्रंथ बिरच कर।
श्रीकलँगीधार ने जिसमें निज कला दिखाई।
जिसमें अपनी जगत चकित कर ज्योति जगाई।
वह हिन्दी भाषा दिव्यता-खनि अमूल्य मणियों भरी।
क्या हो नहिं सकती है सकल भाषाओं की सिर-धारी।I

अति अनुपम, अति दिव्य, कान्त रत्नों की माला।
कवि केशव ने कलित-कण्ठ में जिसके डाला।
पुलक चढ़ाये कुसुम बड़े कमनीय मनोहर।
देव बिहारी ने जिसके युग कमल पगों पर।
आँख खुले पर वह भला लगेगी न प्यारी किसे।
जगमगा रही है जो किसी भारतेन्दु की ज्योति से।I

वैष्णव कवि-कुल-मुख-प्रसूत आमोद-विधाता।
जिसमें है अति सरस स्वर्ग-संगीत सुनाता।
भरा देशहित से था जिसके कर का तूँबा।
गिरी जाति के नयन-सलिल में था जो डूबा।
वह दयानन्द नव-युग जनक जिसका उन्नायक रहा।
उस भाषा का गौरव कभी क्या जा सकता है कहा!।I

महाराज रघुराज राज-विभवों में रहते।
थे जिसके अनुराग-तरंगों ही में बहते।
राजविभव पर लात मार हो परम उदासी।
थे जिसके नागरी दास एकान्त उपासी।
वह हिन्दी भाषा बहु नृपति-वृन्द-पूजिता बंदिता।
कर सकती है उन्नत किये वसुधा को आनंदिता।I

वे भी हैं, है जिन्हें मोह, हैं तन मन अर्पक।
हैं सर आँखों पर रखने वाले, हैं पूजक।
हैं बरता बादी, गौरव-विद, उन्नति कारी।
वे भी हैं जिनको हिन्दी लगती है प्यारी।
पर कितने हैं, वे हैं कहाँ जिनको जी से है लगी।
हिन्दू-जनता नहिं आज भी हिन्दी के रंग में रँगी II

एक बार नहिं बीस बार हमने हैं जोड़े।
पहले तो हिन्दू पढ़ने वाले हैं थोड़े।
पढ़ने वालों में हैं कितने उर्दू-सेवी।
कितनों की हैं परम फलद अंग्रेजी देवी।
कहते रुक जाता कंठ है नहिं बोला जाता यहाँ।
निज आँख उठाकर देखिए हिन्दी-प्रेमी हैं कहाँ? II

अपनी आँखें बन्द नहीं मैंने कर ली हैं।
वे कन्दीलें लखीं जो तिमिर बीच बली हैं।
है हिन्दी-आलोक पड़ा पंजाब-धारा पर।
उससे उज्ज्वल हुआ राज्य इन्दौर, ग्वालिअर।
आलोकित उससे हो चली राज-स्थान-बसुंधरा।
उसका बिहार में देखता हूँ फहराता फरहरा।I

मध्य-हिन्द में भी है हिन्दी पूजी जाती।
उसकी है बुन्देलखण्ड में प्रभा दिखाती।
वे माई के लाल नहीं मुझ को भूले हैं।
सूखे सर में जो सरोज के से फूले हैं।
कितनी ही आँखें हैं लगी जिन पर आकुलता-सहित।
है जिनके सौरभ रुचिर से सब हिन्दी-जग सौरभित II

है हिन्दी साहित्य समुन्नत होता जाता।
है उसका नूतन विभाग ही सुफल फलाता।
निकल नवल सम्वाद-पत्र चित हैं उमगाते।
नव नव मासिक मेगजीन हैं मुग्ध बनाते।
कुछ जगह न्याय-प्रियतादि भी खुलकर हिन्दी हित लड़ीं।
कुछ अन्य प्रान्त के सुजन की आँखें भी उस पर पड़ीं II

किन्तु कहूँगा अब तक काम हुआ है जितना।
वह है किसी सरोवर के कुछ बूँदों इतना।
जो शाला, कल्पना-नयन सामने खड़ी है।
अब तक तो उसकी केवल नींव ही पड़ी है।
अब तक उसका कलका कढ़ा लघुतम अंकुर ही पला।
हम हैं बिलोकना चाहते जिस तरु को फूला फला II

बहुत बड़ा पंजाब औ यहाँ का हिन्दू-दल।
है पकड़े चल रहा आज भी उरदू-आँचल।
गति, मति उसकी वही जीवनाधार वही है।
उसके उर-तंत्री का धवनि मय तार वही है।
वह रीझ रीझ उसके बदन की है कान्ति विलोकता।
फूटी आँखों से भी नहीं हिन्दी को अवलोकता II

मुख से है जातीयता मधुर राग सुनाता।
पर वह है सोहराव और रुस्तम गुण गाता।
उमग उमग है देश-प्रेम की बातें करता।
पर पारस के गुल बुलबुल का है दम भरता।
हम कैसे कहें उसे नहीं हिन्दू-हित की लौ लगी।
पर विजातीयता-रंग में है उसकी निजता रँगी ।I

भाषा द्वारा ही विचार हैं उर में आते।
वे ही हैं नव नव भावों की नींव जमाते।
जिस भाषा में विजातीय भाव ही भरे हैं।
उसमें फँस जातीय भाव कब रहे हरे हैं।
है विजातीय भाव ही का हरा भरा पादप जहाँ।
जातीय भाव अंकुरित हो कैसे उलहेगा वहाँ II

इन सूबों में ऐसे हिन्दू भी अवलोके।
जिनकी रुचि प्रतिकूल नहीं रुकती है रोके।
वे होमर, इलियड का पद्य-समूह पढ़ेंगे।
टेनिसन की कविता कहने में उमग बढ़ेंगे।
पर जिसमें धाराएँ विमल हिन्दू-जीवन की बहीं।
वह कविता तुलसी सूर की मुख पर आतीं तक नहीं II

मैं पर-भाषा पढ़ने का हूँ नहीं विरोधी।
चाहिए हो मति निज भाषा भावुकता शोधी।
जहाँ बिलसती हो निज भाषा-रुचि हरियाली।
वही खिलेगी पर-भाषा-प्रियता कुछ लाली।
जातीय भाव बहु सुमन-मय है वर उर उपवन वही।
हों विजातीय कुछ भाव के जिसमें कतिपय कुसुम ही II

है उरके जातीय भाव को वही जगाती।
निज गौरव-ममता-अंकुर है वही उगाती।
नस नस में है नई जीवनी शक्ति उभरती।
उस से ही है लहू बूँद में बिजली भरती।
कुम्हलाती उन्नति-लता को सींच सींच है पालती।
है जीव जाति निर्जीव में निज भाषा ही डालती II

उस में ही है जड़ी जाति-रोगों की मिलती।
उस से ही है रुचिर चाँदनी तम में खिलती।
उस में ही है विपुल पूर्वतन-बुधा-जन-संचित।
रत्न-राजि कमनीय जाति-गत-भावों अंकित।
कब निज पद पाता है मनुज निजता पहचाने बिना।
नहिं जाती जड़ता जाति की निज भाषा जाने बिना ।I

गाकर जिनका चरित जाति है जीवन पाती।
है जिनका इतिहास जाति की प्यारी थाती।
जिनका पूत प्रसंग जाति-हित का है पाता।
जिनका बर गुण बीरतादि है गौरव-दाता।
उनकी सुमूर्ति महिमामयी बंदनीय विरदावली।
निज भाषा ही के अंक में अंकित आती है चली II

उस निज भाषा परम फलद की ममता तज कर।
रह सकती है कौन जाति जीती धरती पर।
देखी गयी न जाति-लता वह पुलकित किंचित।
जो निज-भाषा-प्रेम-सलिल से हुई न सिंचित।
कैसे निज सोये भाग को कोई सकता है जगा।
जो निज भाषा अनुराग का अंकुर नहिं उर में उगा II

हे प्रभु अपना प्रकृत रूप सब ही पहचाने।
निज गौरव जातीय भाव को सब सनमाने।
तम में डूबा उर भी आभा न्यारी पावे।
खुलें बन्द आँखें औ भूला पथ पर आवे।
निज भाषा के अनुराग की बीणा घर घर में बजे।
जीवन कामुक जन सब तजे पर न कभी निजता तजे II

-हरिऔध साहित्य से साभार