सात दशक बीत गए, आज़ादी के रंग अब फीके पड़ने लगे हैं, और साथ ही हमारी मातृभाषा हिंदी की चमक भी धीरे-धीरे धूमिल होती जा रही है। यह देखकर मन व्यथित होता है, आँखें नम हो जाती हैं। जिस हिंदी ने हमें एकता के सूत्र में पिरोया, जिस हिंदी ने स्वतंत्रता संग्राम की अलख जगाई, आज वही हिंदी अपने ही घर में पराई सी लगती है। विदेशी शब्दों की आंधी ने हमारी भाषा को घेर लिया है, उसके शब्दों को कोमा में धकेल दिया है। क्या हमारी आने वाली पीढ़ियाँ अपनी मातृभाषा की मिठास से वंचित रह जाएंगी? क्या हिंदी की यह दुर्दशा देखकर भी हम चुप रहेंगे? नहीं, अब समय आ गया है कि हम जागें, अपनी भाषा के लिए कुछ करें, वर्ना बहुत देर हो जाएगी। आइए, हिंदी दिवस के इस पावन अवसर पर हम सब मिलकर प्रण लें कि अपनी मातृभाषा को फिर से उसका गौरव दिलाएंगे।
यह कविता और कुछ नहीं, बल्कि करोड़ों हिंदी भाषियों के हृदय की पुकार है। शब्दों में वह दर्द है, जो शायद हम बोल नहीं पाते, पर महसूस जरूर करते हैं। यह कविता एक प्रवाह है, जो हमारी भाषा के प्रति हमारे प्रेम और चिंता को एक सूत्र में पिरोती है। आइए, इस कविता के माध्यम से हम अपनी आवाज़ बुलंद करें और हिंदी के पुनरुत्थान का संकल्प लें।
एक मार्मिक काव्य, शब्दों के विस्थापन की पीड़ा को दर्शाता हुआ
शब्दों ने घर बदल लिया है, आज हिंदी के शब्द कोमा में जा चुके हैं, बस मरने ही वाले हैं!
भरोसा नहीं होता न, तो देखो इनका हाल…
एक मार्मिक काव्य, शब्दों के विस्थापन की पीड़ा को दर्शाता हुआ:
हिंदी की व्यथा: शब्दों का विस्थापन
ओ हिंदी!
मधुरी वाणी, हे भावों की अभिव्यक्ति, तेरे शब्दों में बसा रहता प्रेम था संचित।
पर आज तेरे आँचल में, उर्दू-फ़ारसी-अरबी-अंग्रेज़ी की छाया, तेरे शब्द खो रहे हैं अपनी प्यारी काया।
तुमने इन सबको अपने में समावेशित किया, और खंड-खंड कर स्वयं को ही खोया।
‘प्रेम’ की जगह ‘इश्क़’ ने ले ली, ‘यार-दोस्त’ ने “मित्र” को हटाया,
‘रुचिकर’ की जगह ‘पसंद’ आकर, ‘नज़दीकी’’ ने ‘निकटता’ को भुलाया।
‘ध्यान’ रखने की जगह ‘ख्याल’ करते हैं, ‘क्षमा’ की जगह ‘माफ़ी’ देते हैं,
‘ ‘प्रसन्नता-आनंद’ की जगह ‘खुशी’ है, ‘शोक’ की जगह ‘ग़म’ का डेरा।
“आस” की जगह “उम्मीद” जगाते हैं, “इंतज़ार” में “वक़्त” बिताते हैं।
‘आशा’ की जगह ‘उम्मीद’ जगाते हैं, ‘प्रतीक्षा’ में ‘समय’ नहीं ‘इंतज़ार’ में ‘वक़्त’ बिताते हैं।
‘धन्यवाद’ की जगह ‘शुक्रगुज़ार’ हैं, ‘हृदय-मन’ की जगह ‘क़ल्बे-दिल’ में बसा प्यार है।
‘जीवन’ की जगह ‘हयात’ है, ‘मृत्यु’ की जगह ‘इंतकाल’ का साया।
‘सपने’ की जगह ‘ख़्वाब’ देखते हैं, ‘आकाश’ की जगह ‘फ़लक’ और ‘आसमां’ पर निगाहें टिकाते हैं।
‘चिट्ठी’ की जगह ‘ख़त’ लिखते हैं, ‘ग्रंथ’ की जगह ‘किताब’ पढ़ते हैं।
‘शादी’ की जगह ‘निकाह’ करते हैं, ‘संगीत’ की जगह ‘मूसीक़ी’ सुनते हैं।
‘नृत्य’ की जगह ‘रक़्स’ करते हैं, ‘भेंट’ की जगह ‘तोहफ़ा’ देते हैं।
‘सुंदरता’ की जगह ‘हुस्न’ की तारीफ़ करते हैं, ‘पत्नी’ में ‘बीबी’ को याद करते हैं।
ओ हिंदी! तेरी व्यथा देखकर, मन में उठता है सवाल, क्या खो जाएगी तेरी पहचान, क्या मिट जाएगा तेरा निखार?
नहीं, ऐसा नहीं होगा!
तू फिर से जगमगाएगी, तेरे शब्दों की मिठास, फिर से दुनिया में छाएगी।
आओ मिलकर जगाएँ, तेरी खोई हुई शान, हिंदी दिवस पर फिर से, लहराए तेरा परचम महान।।